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घर से दूर एक आशियाना..

By: Team Aapkisaheli | Posted: 01 Oct, 2012

घर से दूर एक आशियाना..
घर से दूर एक घर..
ज्यों निकलकर बादलों की गोद से
थी अभी एक बूंद कुछ आगे बढी
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी
आह! क्यों घर छोडकर मैं यों कढी..
..बह गई उस काल एक ऎसी
हवा वह समंदर ओर आई अनमनी
एक सुंदर सीप का मुंह था खुला वह
उसी में जा पडी मोती बनी...
अभी बहुत दिन नहीं हुए, जब कोई लडकी घर से निकलती थी तो न सिर्फ माता-पिता या समाज के मन में, खुद उसके मन में भी संदेह होता था कि क्या वह अकेली रहकर अपने लक्ष्य पा सकेगी! मुश्किलों के झंझावात के आगे उसका मन डगमगा तो नहीं जाएगा! माता-पिता को भी लडकी को बाहर भेजने से पहले काफी सोचना पडता था। लेकिन जीवन में कुछ पाने के लिए कंफर्ट जोन से बाहर निकलना होता है और यह बात आज की लडकियां बेहतर जानती हैं। इसीलिए तो अपने घर की तमाम सुख-सुविधाएं छोडकर वे एक नए घर में आ जाती हैं। भले ही घर किराये का हो, हॉस्टल या पीजी हो, यहां कितनी भी असुविधा व अकेलापन हो, लेकिन यह उनके सपनों का घर है। यहां वे कुछ पाने आई हैं और यह घर उनकी उपलब्धि भी है। यह उन्हें संतुष्टि देता है कि बडी सी इस दुनिया में उनका भी कोई ठिकाना है।
जहां रहें हम इक चमन बसा लेते हैं
घर का जिक्र होते ही बचपन का घर आंखों के आगे तैरने लगता है। वह घर जहां पहली बार बाहरी दुनिया में आंखें खोली थीं, जहां चलने की कोशिश में घुटने छिल गए हमारे, जहां माता-पिता की उंगलियां पकडकर चलने का पहला सबक सीखा हमने। वह घर जहां सुरक्षा, सुकून और अपनापन था, जहां रिश्तों व दोस्ती की मिठास थी और थी त्योहारों की पूरी मस्ती। बेफिR जिंदगी थी उस घर में..। लेकिन बचपन के घर में भला कोई कब तक रह सकता है! कभी न कभी इस सुरक्षा-कवच को छोडकर आगे बढना होता है। एक दिन बडे होते ही चिडिया के बच्चे घोंसले से फुर्र हो जाते हैं। उनकी नई जिंदगी शुरू होती है। इसी तरह बचपन के घर से दूसरे रैनबसेरे की ओर कदम बढते हैं। धीरे-धीरे कुछ और रिश्ते जुडते हैं और एक नया घर बन जाता है।
आत्मनिर्भरता की जिद
माता-पिता भी अब लडकियों के सुरक्षित जीवन के प्रति जागरूक हैं। यही कारण है कि लडकियां भी बेहतर शिक्षा हासिल कर रही हैं। शिक्षा ने लडकियों के लिए बाहरी दुनिया के दरवाजे खोले हैं। वे आत्मनिर्भर होने की दिशा में आगे बढ रही हैं। उदारीकरण ने लडकियों के लिए न सिर्फ नए कोर्स पैदा किए, बल्कि रोजगार की संभावनाएं भी पैदा कीं। आज समूचा कामकाजी परिदृश्य लडकियों के पक्ष में दिखाई देता है। पिछले कुछ वर्षो में देश की तमाम बडी कंपनियों में लडकियों की संख्या में इजाफा हुआ है। उच्च पदों पर भी उनकी उपस्थिति बढी है। आत्मनिर्भरता की इस जिद के पीछे सुरक्षित भविष्य की चाह एक बडा कारण तो है ही, विवाह मार्केट में भी अब सर्वगुण-संपन्न कन्या का नौकरीपेशा होना एक प्लस पॉइंट बन गया है। लडके ऎसी लडकी को प्राथमिकता दे रहे हैं, जो उनकी आर्थिक मदद भी कर सके। खुद को साबित करना है
सुरक्षा की जिम्मेदारी खुद पर भी होती है। इस भय से हम घर से निकलना तो नहीं छोड सकते। सौभाग्य से अब तक कोई बुरा अनुभव नहीं रहा है। मेरा मानना है कि अपने आत्मविश्वास व साहस को बनाए रखा जाए। मैं खुद को कमजोर नहीं समझती, न किसी से डरती हूं।
याद भी आता है घर
वाकई इन लडकियों में प्रतिभा, योग्यता, आत्मविश्वास के साथ ही खुद को साबित करने का जज्बा है। ये घर से दूर अपनी मासूम हसरतों का एक घर बुन रही हैं। दुख-तकलीफ, सुविधा-असुविधा, सुरक्षा-असुरक्षा का खयाल छोड आर्थिक-मानसिक आजादी की दिशा में कदम बढा रही हैं। इनके हौसलों के आगे अब हर मुश्किल नाकाम है।
कंफर्ट जोन से बाहर आना होगा- मल्लिका सहरावत (अभिनेत्री, मुंबई)
मैंने भी काफी कुछ झेलकर घर से बाहर कदम निकाला है। हमें आगे बढना है तो अपने कंफर्ट जोन से बाहर आना होगा। मैंने सपनों के साथ अपना शहर छोडा और मुंबई आ गई। शुरू में मुंबई में कई तरह की परेशानियां हुई, लेकिन इसके लिए मैं मानसिक तौर पर तैयार थी। हरियाणा के छोटे से शहर रोहतक में मैं पैदा हुई, जहां बहुत सुविधाएं नहीं थीं। काम की खोज में ही मुंबई आई। यहां के शुरूआती संघर्ष से बहुत-कुछ सीखने को भी मिला। कुछ मददगार लोग भी मिले और यहां अपनी एक जगह बन गई। जब यहां कंफर्ट महसूस होने लगा तो उसे तोडकर फिर हॉलीवुड चली गई। मेरा मानना है कि नया करने और कुछ पाने के लिए हमें तैयार रहना चाहिए। गांव-घर की यादों में डूबे रहेंगे तो आगे बढना मुश्किल होगा। इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं अपनी जडों से जुडी हुई नहीं हूं, लेकिन मैं बाहर की फिजां में भी अपना विकास करना चाहती हूं।

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